Thursday, May 27, 2010

बरखा

उमड़ घुमड़ कर आते मेघा
बूंदों संग इठलाते मेघा
भीगी भीगी सी फुलवारी
मिटटी की महक लगती न्यारी
रिमझिम बौछार की मस्त धार
उर को हर्षाए बरखा बहार
वह मंथर मतवाली बयार
पपीहा भी गाए मेघ मल्हार
थिरके मयूर, चातक, चकोर
प्रकृति भी दिखती भाव विभोर
नैसर्गिक शोभा नयनाभिराम
गर्मी पर लगा थोडा विराम
भीगा भीगा सा वन -उपवन
उल्लासित पंछी करते गुंजन
आनंदित करती वर्षा की फुहार
अचला निकली कर सोलह श्रृंगार
इन्द्रधनुष उभरा अम्बर पर
समेटे सात रंग
भँवरे भी आतुर हैं
रचाने रास कलियों संग
क्लांत धरा अब लगती तृप्त
नन्ही बूंदों को ओढ़
'प्रकृति' मना रही उत्सव
अपनी चिंताएं छोड़ ।

कुछ शब्द :- इस निष्टुर तपते ग्रीष्म काल में जहां दूर दूर तक वर्षा का कोई संकेत नहीं दिख पा रहा है , वहां इस काव्य रचना को प्रस्तुत कर थोड़ी देर के लिए मैं आपको वर्षा के अहसास में भिगा देना चाहती हूँ। आशा करती हूँ मेरी यह काव्य रचना आपको काल्पनिक ही सही पर कुछ पल के लिए तपिश से राहत, शीतलता व ताजगी अवश्य प्रदान करेगी।

1 comment:

  1. वाह अतिसुन्दर .. शब्दों का क्रमचय प्रसंशनीय है

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