Thursday, May 27, 2010

बरखा

उमड़ घुमड़ कर आते मेघा
बूंदों संग इठलाते मेघा
भीगी भीगी सी फुलवारी
मिटटी की महक लगती न्यारी
रिमझिम बौछार की मस्त धार
उर को हर्षाए बरखा बहार
वह मंथर मतवाली बयार
पपीहा भी गाए मेघ मल्हार
थिरके मयूर, चातक, चकोर
प्रकृति भी दिखती भाव विभोर
नैसर्गिक शोभा नयनाभिराम
गर्मी पर लगा थोडा विराम
भीगा भीगा सा वन -उपवन
उल्लासित पंछी करते गुंजन
आनंदित करती वर्षा की फुहार
अचला निकली कर सोलह श्रृंगार
इन्द्रधनुष उभरा अम्बर पर
समेटे सात रंग
भँवरे भी आतुर हैं
रचाने रास कलियों संग
क्लांत धरा अब लगती तृप्त
नन्ही बूंदों को ओढ़
'प्रकृति' मना रही उत्सव
अपनी चिंताएं छोड़ ।

कुछ शब्द :- इस निष्टुर तपते ग्रीष्म काल में जहां दूर दूर तक वर्षा का कोई संकेत नहीं दिख पा रहा है , वहां इस काव्य रचना को प्रस्तुत कर थोड़ी देर के लिए मैं आपको वर्षा के अहसास में भिगा देना चाहती हूँ। आशा करती हूँ मेरी यह काव्य रचना आपको काल्पनिक ही सही पर कुछ पल के लिए तपिश से राहत, शीतलता व ताजगी अवश्य प्रदान करेगी।

Friday, May 7, 2010

लालसा

ओ लालसा!
तुम कितनी समभावी व
धर्मनिरपेक्ष हो।
धनी -निर्धन सभी को तुम
एक ही तुला में तोलती हो
तुम सभी लोगो के
सर पर चढ़ कर बोलती हो
तुम सब को समरूप समझती हो
किसी में भी अंतर लेशमात्र
तुम नहीं करती हो।

शनै: शनै: मानव को तुम
सम्मोहित करती जाती हो
बुद्धि को उसकी धीरे धीरे किन्तु
निरंतर डसती जाती हो।

मानव भी कितना मूढ़ है ?
स्वयं को परम शक्तिवान मानता है,
पर फिर भी बेचारा!
तुम्हारे वश से निकलना नहीं जनता है।

पर ओ लालसा !
मैंने तुम से भी कुछ सीखा है;
सीखा है मैंने रखना समभाव,
रहना समदृष्टि
जीवन के हर पड़ाव पर,
चाहे धूप हो या छाँव।

मैं जानती हूँ
यदि हो गए हम समभावी
तो तुम तो सर्वथा नाकारा हो जाओगी
अकेले में कही शोक मानती
दिख जाओगी,
और फिर तुम अपनी नियति पर
स्वयं ही पछताओगी।

Thursday, April 8, 2010

दस्तक

हर दस्तक पर हो जाता है दिल बेचैन
धडकनें बढ़ जाती हैं
हर आहट पर उनकी रूह फिर से
पशोपेश में पड़ जाती है
रूह नहीं होना चाहती फिर से शर्मिंदा
पर पेट की भूख रूह को भी बरगलाती है
शिकवा करें तो वे करें किस से
जहां इस ज़माने की खामोश रज़ामंदी से
शाम ढलते ही जिस्म की नुमाइश लग जाती है और
शराफत की भी आँखे नम हो झुक सी जाती हैं
मजबूरी हालात के सामने फिर से
बेबस सी खडी नज़र आती है ।

Theme: I have made an attempt to portray the pain of those souls who are by cirumstances forced to be part of flash business. Hope their pain reflects through my few lines.

Tuesday, March 23, 2010

नवस्वप्न

मधुर स्मृतियों का आलिंगन
हर क्षण को महका जाये
नव स्वप्नों की सेज सजा कर
चंचल मन थोडा बौराए
मधुर मिलन की आस लगा
खुशियों का झुरमुट मचलाए
नव जीवन के नव स्वपन संजो
मुखड़े पर रौनक आ जाये
आँख का काजल, मुख की लालिमा
खुशियों में झूमे इठलाए
हर्ष रुपी पंखुड़ियों संग
जीवन गुलदस्ता मुस्काए

घर आँगन की चहकती बिटिया
होगी शोभा कल पर घर की
यह सोच सोच पिता का मन
हर पल नम होता चला जाये

नोक-झोंक की नटखट यादें
लगे शीत की गुनगुनी धूप सी
उन भावों में आनंदित हो
भाई का दुलार उमडा जाए
प्यारी बिटिया की अलहड़ मुस्कान
माँ की ममता को छू जाये

उन यादों में उल्लासित हो
माँ का स्नेह भी छलका जाए
यादों में बसी वो अनमोल छवि
बरबस पलकों को भिगा जाए
रिमझिम फुहार सी अश्रुधार
नयनों को गीला कर जाए

उक्त कविता के माध्यम से मैंने विवाह बंधन में बंधने जा रही युवती एवं उसके निकटतम परिजनों की हिलोरे लेती भावनाओ को चित्रित करने का प्रयास किया है, मेरे इस प्रयास पर आप सभी के सुझाव आमंत्रित हैंi

प्रकृति की व्यथा कथा :-

उद्वेलित किंचित व्यग्र विचलित,
अपरिभाषित विकास के विष से ग्रसित,
निर्लिप्त कमल सी वह देखे
होते अपना ही ह्रास
सृष्टि भी अचंभित है स्वयं की नियति देख के आज
समय रहते संभल जा रे मानव!
वरना देखेगा प्रकृति का क्रूर अट्टहास

Theme- It is a 'satire' on much hyped human endeavours towards saving nature, earth and natural resources. As we all know that human concern is very high but unfortunately, in proportion to that the real awareness, human efforts and concrete implementation are much less rather 'symbolic' is better word .

जीजिविषा

अपने सपनो की कूंची से
मैं इस जीवन को रंग लूंगी
इच्छा शक्ति की तुलिका से
सपने यथार्थ में बदलूंगी
मैं आत्मबल के पंख लगा
ऊंची उड़ान भी भर लूंगी
आत्मशक्ति के आलंबन पर
मैं हर ऊँचाई छू लूंगी।

व्याख्या:- उक्त कविता के माध्यम से मैंने जीवन जीने की कला को पंक्तिबद्ध करने का प्रयास किया है । आत्मविश्वास व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा मानव कठिन से कठिन लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकता है।