Thursday, April 8, 2010

दस्तक

हर दस्तक पर हो जाता है दिल बेचैन
धडकनें बढ़ जाती हैं
हर आहट पर उनकी रूह फिर से
पशोपेश में पड़ जाती है
रूह नहीं होना चाहती फिर से शर्मिंदा
पर पेट की भूख रूह को भी बरगलाती है
शिकवा करें तो वे करें किस से
जहां इस ज़माने की खामोश रज़ामंदी से
शाम ढलते ही जिस्म की नुमाइश लग जाती है और
शराफत की भी आँखे नम हो झुक सी जाती हैं
मजबूरी हालात के सामने फिर से
बेबस सी खडी नज़र आती है ।

Theme: I have made an attempt to portray the pain of those souls who are by cirumstances forced to be part of flash business. Hope their pain reflects through my few lines.