ओ लालसा!
तुम कितनी समभावी व
धर्मनिरपेक्ष हो।
धनी -निर्धन सभी को तुम
एक ही तुला में तोलती हो
तुम सभी लोगो के
सर पर चढ़ कर बोलती हो
तुम सब को समरूप समझती हो
किसी में भी अंतर लेशमात्र
तुम नहीं करती हो।
शनै: शनै: मानव को तुम
सम्मोहित करती जाती हो
बुद्धि को उसकी धीरे धीरे किन्तु
निरंतर डसती जाती हो।
मानव भी कितना मूढ़ है ?
स्वयं को परम शक्तिवान मानता है,
पर फिर भी बेचारा!
तुम्हारे वश से निकलना नहीं जनता है।
पर ओ लालसा !
मैंने तुम से भी कुछ सीखा है;
सीखा है मैंने रखना समभाव,
रहना समदृष्टि
जीवन के हर पड़ाव पर,
चाहे धूप हो या छाँव।
मैं जानती हूँ
यदि हो गए हम समभावी
तो तुम तो सर्वथा नाकारा हो जाओगी
अकेले में कही शोक मानती
दिख जाओगी,
और फिर तुम अपनी नियति पर
स्वयं ही पछताओगी।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteA really good one!
ReplyDelete--
Mukesh